मामू भाणेज की दरगाह:
राजनगर के पुराना किला के पास ही में मामू भाणेज की दरगाह है | मामू भाणेज की दरगाह भी लगभग चार सौ साल पुरानी हैं, राणा राजसिंह जी के जमाने की | ये एक तरह से स्थानिय पीर हैं, जिनकी यहां के मुस्लिम समुदाय में बहुत ही मान्यता हैं और सम्मान है | ये दरगाह मुस्लिम समुदाय का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है | मामू भाणेज की कब्र पर लोग बहुत से गुलाब के फूल आदि चढ़ाते हें | कई लोग यहां मन्नत मांगते हें और मन्नत पूरी होने पर फिर सजदे में सिर झुकाने के लिये यहां आते हैं | अक्सर शुक्रवार को यहां अच्छी खासी भीड रहती हैं | वर्ष में एक बार तीन दिवसीय उर्स के मेले का भी यहां आयोजन होता है, बहुत से अच्छे अच्छे कव्वाल और गायक कलाकार यहां अपनी प्रस्तुतियां देते हैं |

मामू भाणेज
मामू भाणेज की दरगाह तक कैसे पहुंचेः
राजनगर हुसैनी चौक से होते हुए जब हम राजनगर बस स्टेन्ड की तरफ जाते हैं, तो थोडा आगे बढ़ते ही सीधे हाथ की तरफ उपर घाटी की तरफ रास्ता जा रहा हैं, सुविधा के लिये मार्ग सूचक बोर्ड भी लगाया हुआ हैं | पैदल या दु पहिया वाहन से यहां जाया जा सकता हैं | चढ़ाई के थोडा उपर जाकर हमें अपने दुपहिया वाहनों को सडक के आखिरी छोर पर खडा करके थोडा पैदल जाना होता हैं | लगभग आधा कि.मी. उबड खाबड रास्ते पर पैदल चलने के बाद हम मामू भाणेज की दरगाह तक पहुंच सकते हैं, यहीं पास में राजनगर का पुराना किला और अन्नपूर्णा माताजी का मंदिर भी है | यहां जाने का एक दूसरा रास्ता भी है जो सेवाली मुख्य हाई वे की तरफ से उपर की ओर आता हैं | यहां से राजनगर और काकंरोली की आबादी और राजसमन्द झील के बडे ही मनोहारी दृश्य देखे जा सकते हैं, और हां यहां के सुर्यास्त के दृश्य की तो बात ही कुछ और हैं |
मामू भाणेज की दरगाह का एतिहासिक महत्वः
कहते हैं की राजसमन्द और राजनगर के संस्थापक राणा राजसिंह जी के जमाने की बात थी | राणा राजसिंह जी का राजमहल या ये किला उन्होने अपने लिये बनवाया था, वे यहां भी रहते थे और कभी कभार प्रवास भी करते थे, वो जमाना कुछ और था कोई किसी एक जगह पर हमेशा के लिये बस नहीं सकता था | उनके राजमहल मे कई सारी सुविधाएं थी जेसे मंदिर, कुआं रहने के लिये स्थान आदि | वे कुछ समय के लिये अपने परिवारजनो और सेनिकों के साथ किसी अन्य जगह पर चले गये | उससे पहले उन्होने ये महल की देखरेख की जिम्मेदारी पुरोहित पंडितो को दी, और वे चले गये | कुछ समय बाद जब वे फिर से यहां वापस आये तो पुरोहित पंडितो आदि नें ये स्थान पर उन्हें कब्जा देने के लिये मना कर दिया | राजपूत सेनिक और सिपहसालारों नें भी राणा जी को ये कह कर मना कर दिया की वे पुरोहित ये पंडितो पर तलवार नहीं चला सकते, क्यूं की वे यदि ए॓सा करते हैं तो उन्हें ब्रह्म हत्या का पाप लगेगा | राणा राजसिंह जी भी हिम्मत के धनी थे और एक बार जो ठान लेते वो कर के ही रहते थे | उन्होने पडौसी राजाओ से मदद ली, जिसमें कुछ मुस्लिम लडाके सैनिक भी थे, वे सभी राणा राजसिंह जी को अपना राजमहल वापस दिलाने की जंग मे लडे | इसी सेनिक टुकडी में एक मामा भान्जे की जोडी भी थे | वे दोनों बडी वीरता से लडे और अन्त में यहां शहीद हुए |
फिर ये जगह बहुत समय से उपेक्षित पडी रही, और दशकों बाद एक मुस्लिम संत को स्वप्न में ये बात पता चली की यहां इतने बडे सूरमा [Read more →]